उत्तराखण्ड राज्य
उत्तराखण्ड
का इतिहास
पौराणिक काल जितना पुराना है। उत्तराखण्ड का शाब्दिक अर्थ उत्तरी भाग होता है। इस
नाम का उल्लेख प्रारम्भिक हिन्दू ग्रन्थों में भी मिलता है, जहाँ पर केदारखण्ड (वर्तमान गढ़वाल) और
मानसखण्ड (वर्तमान कुमाऊँ) के रूप में इसका उल्लेख
हुआ है। पौरव,
कुशान, गुप्त, कत्यूरी, रायक, पाल, चन्द, परमार और अंग्रेज़ों ने बारी-बारी से यहाँ
शासन किया था।
रूपरेखा
अंग्रेज इतिहासकारों
के अनुसार हुण, सकास, नाग खश आदि जातियां भी हिमालय
क्षेत्र में निवास करती थी।
ऐतिहासिक
विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढ़ों (किले) में विभक्त था। इन गढ़ों के अलग-अलग
राजा थे जिनका अपना-अपना आधिपत्य क्षेत्र था। इतिहासकारों के अनुसार पँवार वंश के
राजा ने इन गढ़ों को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को
अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढ़वाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन1803 में नेपाल
की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया। यह आक्रमण लोकजन
में गोरखाली के नाम से प्रसिद्ध है।
मानस
खण्ड का कुर्मांचल
व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के
शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के
बाद प्रारम्भ होकर सन 1790 तक रहा। सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य को
अपने आधीन कर दिया।
गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन 1815 में अंग्रजो से अन्तिम
बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना
नेपाल वापिस चली गई किन्तु
अंग्रजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं
को न देकर कुमाऊं को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के
अधीन कर किया। इस प्रकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का शासन 1815 से प्रारम्भ हुआ।
इतिहासकारों
के अनुसार पंवार वंश के
राजा ने इन गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल
राज्य की स्थापना की और श्रीनगर
को
अपनी राजधानी बनाया। केदारखण्ड का गढवाल
नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल
की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर गढ़वाल राज्य को अपने अधीन कर लिया।
अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की
गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर
दिया। किन्तु गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा
द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त
करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढवाल को न सौप कर अलकनन्दा
मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर
गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग
वापिस किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को टिहरी नाम के स्थान
पर जो भागीरथी और मिलंगना के संगम पर छोटा सा गॉव था, अपनी राजधानी स्थापित
की।
कुछ
वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर
नरेन्द्र नगर नाम से दूसरी राजधानी
स्थापित की। सन 1815 से देहरादून व पौडी
गढवाल (वर्तमान चमोली जिलो व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ
विकास खण्ड सहित) अंग्रेज़ो के अधीन व
टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।
गोरखा शासन से राज्य स्थापना तक का घटना क्रम
उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन
1815
में
हुआ। वास्तव में यहां अंग्रेजों का आगमन गोरखों के 25 वर्षीय सामन्ती सैनिक
शासन का अंत भी था।
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1856-1884 तक उत्राखंड हेनरी
रैमजे के शासन में रहा
तथा यह युग ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने के काल के रूप में पहचाना गया। इसी
दौरान सरकार के अनुरूप समाचारों का प्रस्तुतीकरण करने के लिये 1868 में समय विनोद तथा 1871 में अल्मोड़ा अखबार की शुरूआत हुयी। 1905 मे बंगाल के विभाजन के
बाद
अल्मोडा
के नंदा देवी नामक स्थान पर विरोध सभा हुयी। इसी वर्ष कांग्रेस के बनारस
अधिवेशन में उत्तराखंड से हरगोविन्द पंत, मुकुन्दीलाल, गोविन्द
बल्लभ पंत बदरी दत्त पाण्डे आदि युवक
भी सम्मिलित हुये।
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1906 में हरिराम त्रिपाठी ने वन्देमातरम् जिसका उच्चारण ही तब देशद्रोह माना जाता था उसका कुमाऊँनी अनुवाद किया।
1906 में हरिराम त्रिपाठी ने वन्देमातरम् जिसका उच्चारण ही तब देशद्रोह माना जाता था उसका कुमाऊँनी अनुवाद किया।
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1916 के सितम्बर
माह में हरगोविन्द पंत गोविन्द बल्लभ पंत बदरी दत्त पाण्डे
इन्द्रलाल साह मोहन सिंह दड़मवाल चन्द्र लाल साह प्रेम बल्लभ पाण्डे भोलादत पाण्डे ओर लक्ष्मीदत्त
शास्त्री आदि उत्साही युवकों के द्वारा कुमाऊँ
परिषद की स्थापना की गयी जिसका मुख्य
उद्देश्य तत्कालीन उत्तराखंड
की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याआं का
समाधान खोजना था। 1926 तक इस संगठन ने
उत्तराखण्ड में स्थानीय सामान्य सुधारो
की दिशा के अतिरिक्त निश्चित
राजनैतिक उद्देश्य के रूप में
संगठनात्मक गतिविधियां संपादित कीं। *1923 तथा 1926 के
प्रान्तीय काउन्सिल के चुनाव में गोविन्द बल्लभ पंत हरगोविन्द पंत मुकुन्दी लाल तथा बदरी
दत्त पाण्डे ने प्रतिपक्षियों को बुरी तरह पराजित
किया। 1926 में कुमाऊँ परिषद का कांग्रेस
में विलीनीकरण कर दिया गया।
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1926 में कुमाऊँ परिषद का कांग्रेस में
विलीनीकरण कर दिया गया। 1927 में
साइमन कमीशन की घोषणा के तत्काल बाद इसके विरोध में स्वर उठने लगे और जब 1928 में कमीशन देश मे पहुचा तो इसके विरोध में 29 नवम्बर 1928 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में
16 व्यक्तियों की एक टोली ने
विरोध किया जिस पर घुडसवार पुलिस ने
निर्ममता पूर्वक डंडो से प्रहार किया। जवाहरलाल नेहरू को बचाने के लिये गोविन्द बल्लभ पंत पर
हुये लाठी के प्रहार के शारीरिक दुष्परिणाम
स्वरूप वे बहुत दिनों तक कमर सीधी नहीं कर सके थे।
·
भारतीय गणतन्त्र में टिहरी
राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी
को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उ.प्र.)
का एक जिला घोषित किया गया। 1932 के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की
दृष्टि से सन 1960 में तीन
सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व
पिथौरागढ़ का गठन किया गया।
भारतीय
गणतन्त्र में टिहरी
राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त
प्रान्त (उ.प्र.) का एक जिला घोषित किया गया। 1962 के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठ भूमि में
सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन 1960 में तीन सीमान्त जिले
उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का
गठन किया गया।
सन
1969 तक देहरादून को छोड़कर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊँ मण्डल के अधीन थे। सन 1969 में गढ़वाल मण्डल की
स्थापना की गई जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया। सन 1975 में देहरादून जिले को
जो मेरठ प्रमण्डल में सम्मिलित था, गढ़वाल मण्डल में
सम्मिलित कर लिया गया।
इससे गढवाल मण्डल में जिलों की संख्या पाँच हो गई। कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़,
तीन जिले सम्मिलित थे। सन 1994 में उधमसिंह नगर और सन 1997 में रुद्रप्रयाग, चम्पावत व बागेश्वर
जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व
गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डलों में छः-छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने के पश्चात गढ़वाल मण्डल में सात और कुमाऊँ
मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं। 1 जनवरी 2007 से राज्य का नाम "उत्तराञ्चल" से बदलकर
"उत्तराखण्ड" कर दिया गया है।
मध्यकाल में उत्तराखण्ड
कत्यूरी राजवंश
भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक
मध्ययुगीन राजवंश था जिनके बारे में में माना जाता है कि वे अयोध्या के शालिवाहन शासक के वंशज हैं और इसलिए
वे सूर्यवंशी हैं। तथापि, बहुत
से इतिहासकार
उन्हें कुनिन्दा शासकों से जोड़ते हैं और खस मूल से भी, जिनका कुमाऊँ क्षेत्र पर ६ठीं से ११वीं सदी तक
शासन था।
कत्यूरी
राजवंश भी शक वंशावली के माने जाते हैं, जैसे राजा शालिवाहन, को भी शक वंश से माना जाता है। तथापि,
बद्री दत्त पाण्डे जैसे इतिहासकारों का मानना है कि कत्यूरी,
अयोध्या से आए थे।
उन्होंने
अपने राज्य को कूर्माञ्चल कहा, अर्थात
कूत्म की भूमि, को भगवान विष्णु का दूसरा अवतार था,
जिससे इस स्थान को इसका वर्तमान नाम,
कुमाऊँ मिला। गोलू चंपावत के कत्युरी वंश के राजा झालुराई के पुत्र
थे।
कत्युरी राजा वीर देव के पश्चात कत्युरियों के साम्राज्य का पूर्ण विभाजन
पांडुकेश्वर की तांबे
की प्लेटें (ताम्रपत्र) दर्शाती हैं कि इस बेराज की राजधानी
कार्तिकेयपुरा नीति-माना घाटी में और आगे चलकर कात्यूर घाटी में स्थित थी। एटकिंशन ने काबुल की घाटी से इस वंशज की उत्पत्ति का
पता लगाया तथा उनकों काटोरों से जोड़ा।
कुमाऊँ का इतिहास
अक्टूबर 1815 में डब्ल्यू
जी ट्रेल ने गढ़वाल तथा कुमाऊँ कमिश्नर का पदभार संभाला। सन् 1940 में हल्द्वानी सम्मेलन में बद्री दत्त
पाण्डेय ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया
प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊँ-गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन
करने की माँग रखी। 1954 में विधान परिषद के सदस्य इन्द्र सिंह नयाल ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री गोविन्द बल्लभ पंत से पर्वतीय क्षेत्र के लिये
पृथक विकास योजना बनाने का आग्रह किया तथा
1955 में फ़ज़ल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग
राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की।
वर्ष 1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टी.टी. कृष्णम्माचारी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिये विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया। 12 may 1970 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान राज्य तथा केन्द्र सरकार का दायित्व होने की घोषणा की गई और 28 july 1979 को पृथक राज्य के गठन के लिये मसूरी में उत्तराखण्ड क्रान्ति दल की स्थापना की गई। जून 1987 में कर्णप्रयाग के सर्वदलीय सम्मेलन में उत्तराखण्ड के गठन के लिये संघर्ष का आह्वान किया तथा नवंबर 1987 में पृथक उत्तराखण्ड राज्य के गठन के लिये नई दिल्ली में प्रदर्शन और राष्ट्रपति को ज्ञापन एवं हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की माँग की गई।
उत्तराखण्ड क्रान्ति दल इतिहास
उत्तराखण्ड
क्रान्ति दल की स्थापना उत्तर प्रदेश के पर्वतीय ज़िलों से बने एक अलग राज्य के
निर्माण आन्दोलन हेतु 26 जुलाई 1979 को हुई थी। स्थापना सम्मेलन कुमाऊँ विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति डॉ॰ डी.डी. पन्त की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था।
उक्राद के झण्डे तले अलग राज्य की माँग ने एक बड़े राजनीतिक संघर्ष और जन आन्दोलन
का स्वरूप ले लिया
नेतृत्व
पार्टी
के वर्तमान चेहरे काशी सिंह ऐरी, उत्तराखण्ड
राज्य आंदोलन के एक प्रमुख नेता, उत्तर
प्रदेश विधान सभा में तीन बार (1984-1989, 1989-1991, 1993-1996) विधायक और उत्तराखण्ड
क्रान्ति दल के एक वरिष्ठ नेता हैं जो प्रथम उत्तराखण्ड
विधान सभा 2002 में विधायक और उक्राद के अध्यक्ष भी रहे हैं। पार्टी के
वर्तमान उपाध्यक्ष भुवन चंद्र जोशी और बीना बहुगुणा, वरिष्ठ राज्य
आन्दोलनकारी और उत्तराखण्ड राज्य के गठन में सबसे आगे से संघर्ष करने वाले
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण आंदोलन के प्रमुख चेहरे हैं। जसवंत
सिंह बिष्ट रानीखेत निर्वाचन क्षेत्र से पहली बार निर्वाचित विधायक थे।
अन्य विभूतियों में बिपिन चन्द्र त्रिपाठी,
इन्द्रमणि बडोनी जो अलग
राज्य आन्दोलन के लिए उक्राद के संस्थापक सदस्यों और लंबे समय से राज्य
आन्दोलनकारियों में से एक थे, शामिल हैं।
1994 उत्तराखण्ड राज्य एवं आरक्षण को लेकर छात्रों ने सामूहिक रूप से आन्दोलन किया। मुलायम सिंह यादव के उत्तराखण्ड विरोधी वक्तव्य से क्षेत्र में आन्दोलन तेज हो गया। उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के नेताओं ने अनशन किया। उत्तराखण्ड में सरकारी कर्मचारी पृथक राज्य की माँग के समर्थन में लगातार तीन महीने तक हड़ताल पर रहे तथा उत्तराखण्ड में चक्काजाम और पुलिस फायरिंग की घटनाएँ हुईं। उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों पर मसूरी और खटीमा में पुलिस द्वारा गोलियाँ चलाईं गईं। संयुक्त मोर्चा के तत्वाधान में 2 अक्टूबर, 1994 को दिल्ली में भारी प्रदर्शन किया गया। इस संघर्ष में भाग लेने के लिये उत्तराखण्ड से हज़ारों लोगों की भागीदारी हुई। प्रदर्शन में भाग लेने जा रहे आन्दोलनकारियों को मुजफ्फर नगर में बहुत प्रताड़ित किया गया और उन पर पुलिस ने गोलीबारी की और लाठियाँ बरसाईं तथा महिलाओं के साथ अश्लील व्यवहार और अभद्रता की गयी। इसमें अनेक लोग हताहत और घायल हुए। इस घटना ने उत्तराखण्ड आन्दोलन की आग में घी का काम किया। अगले दिन तीन अक्टूबर को इस घटना के विरोध में उत्तराखण्ड बंद का आह्वान किया गया जिसमें तोड़फोड़ गोलीबारी तथा अनेक मौतें हुईं।
7 अक्टूबर, 1994
को देहरादून में एक महिला आन्दोलनकारी की मृत्यु हो हई इसके विरोध में
आन्दोलनकारियों ने पुलिस चौकी पर उपद्रव किया।
15 अक्टूबर 1994 को देहरादून में कर्फ़्यू लग गया और उसी दिन एक आन्दोलनकारी
शहीद हो गया।
27 अक्टूबर, 1994
को देश के तत्कालीन गृहमंत्री
राजेश पायलट की आन्दोलनकारियों की वार्ता हुई। इसी बीच श्रीनगर में
श्रीयंत्र टापू में अनशनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक प्रहार किया जिसमें
अनेक आन्दोलनकारी शहीद हो गए।
खटीमा गोलीकाण्ड
15 अगस्त, 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने उत्तराखण्ड राज्य की घोषणा लालकिले से की।
खटीमा गोलीकाण्ड
1 सितंबर, 1994 को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का काला दिन माना जाता है, जिसके परिणामस्वरुप
सात आन्दोलनकारियों की मृत्यु
हो गई। मारे ग एलोगों के नाम हैं:
मसूरी गोलीकाण्ड
2
सितंबर, 1994 को खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे लोगों
पर एक बार फिर पुलिसिया कहर टूटा।
मुजफ्फरनगर (रामपुर तिराहा) गोलीकाण्ड
२ अक्टूबर 1994 की रात्रि को दिल्ली रैली में जा रहे आन्दोलनकारियों का रामपुर तिराहा,
मुजफ्फरनगर इस गोलीकाण्ड में राज्य के 7
आन्दोलनकारी शहीद हो गये थे। इस गोली काण्ड के दोषी आठ पुलिसवालों पर्, जिनमे तीन
इंस्पै़क्टर भी हैं, पर मामला चलाया जा रहा है।
देहरादून गोलीकाण्ड
3 अक्टूबर, 1994 को मुजफ्फरनगर काण्ड की सूचना देहरादून में पहुंचते ही लोगों
का उग्र होना स्वाभाविक था। इसी बीच इस काण्ड में शहीद स्व० श्री
रविन्द्र सिंह रावत की शवयात्रा जिसने तीन और लोगों को इस आन्दोलन में शहीद
कर दिया।
कोटद्वार काण्ड
3 अक्टूबर 1994 को पूरा उत्तराखण्ड मुजफ्फरनगर काण्ड के विरोध में उबला हुआ था जिसमें दो आन्दोलनकारियों को पुलिस कर्मियों
द्वारा राइफल के बटों व डण्डों से पीट-पीटकर मार डाला।
नैनीताल गोलीकाण्ड
नैनीताल में भी विरोध
चरम पर था, लेकिन इसका नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में होने के कारण
पुलिस कुछ कर नहीं पाई, लेकिन इसकी भड़ास उन्होने निकाली प्रशान्त होटल
में काम करने वाले प्रताप सिंह के ऊपर। आर०ए०एफ० के सिपाहियों ने इसे
होटल से खींचा और जब यह बचने के लिये मेघदूत होटल की तरफ भागा, तो इनकी गर्दन में
गोली मारकर हत्या कर दी गई।
श्रीयंत्र टापू (श्रीनगर) काण्ड
श्रीनगर कस्बे से 2 कि०मी० दूर स्थित श्रीयन्त्र
टापू पर आन्दोलनकारियों ने
7 नवंबर, 1994
से इन सभी दमनकारी घटनाओं के विरोध और पृथक
उत्तराखण्ड राज्य हेतु आमरण अनशन आरम्भ किया। 10 नवंबर, 1994 को
पुलिस ने इस टापू में पहुँचकर अपना कहर बरपाया,
जिसमें कई लोगों को गम्भीर चोटें भी आई,
इसी क्रम में पुलिस ने दो युवकों को
राइफलों के बट और लाठी-डण्डों से मारकर
अलकनन्दा नदी में फेंक दिया और उनके ऊपर पत्थरों की बरसात कर दी, जिससे इन दोनों की
मृत्यु हो गई।
इन
दोनों शहीदों के शव 14 नवंबर,
1994 को बागवान के समीप
अलकनन्दा में तैरते हुये पाये गये थे।
15 अगस्त, 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने उत्तराखण्ड राज्य की घोषणा लालकिले से की।
1998 में केन्द्र की
भाजपा गठबंधन सरकार ने पहली
बार राष्ट्रपति के माध्यम से उ.प्र. विधानसभा को उत्तरांचल विधेयक भेजा। उ.प्र. सरकार ने 26
संशोधनों के साथ उत्तरांचल राज्य विधेयक विधान सभा में पारित करवाकर
केन्द्र सरकार को भेजा। केन्द्र सरकार ने
27 जुलाई, 2000 को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 2000 को लोकसभा
में प्रस्तुत किया जो 1 अगस्त, 2000 को
लोकसभा में तथा 10 अगस्त,
2000 अगस्त को
राज्यसभा में पारित हो गया।
भारत के राष्ट्रपति ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को 28 अगस्त, 2000 को अपनी स्वीकृति दे दी और इसके बाद यह विधेयक अधिनियम में
बदल गया और इसके साथ ही 9 नवम्बर 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व मे आया जो अब उत्तराखण्ड नाम से अस्तित्व में है।
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