यह
पूराने श्रीनगर का एक प्राचीन मंदिर है जो वर्ष 1894 की बाढ़ को झेलने के बाद भी विद्यमान है जबकि इसका
निचला भाग टनों मलवे से भर गया। इस मंदिर के निर्माणकर्त्ता पर मतभेद है,
पर केदार खंड में देवल ऋषि तथा राजा नहुष का वर्णन है
जिन्होंने यहां तप किया था। इस स्थान को ठाकुर द्वारा भी कहते हैं। वर्ष 1670 में फतेहपति शाह द्वारा जारी एक
ताम्र-पात्र के अनुसार तत्कालीन धर्माधिकारी शंकर धोमाल ने
यहां यह जमीन खरीदा तथा राजमाता की अनुमति से यहां एक मंदिर की स्थापना की।
मंदिर में एक बड़ा मंडप है और चूंकि इसमें कोई खंभा नहीं है, अत: यह तत्कालीन पत्थर वास्तुकला की खोज
का उदाहरण
है।
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